
अजय बोकिल
राजस्थान के झालावाड़ जिले के पिपलोदी गांव में एक सरकारी स्कूल बिल्डिंग की छत अचानक गिरने से उसके नीचे बैठकर ज्ञान का ककहरा सीख रहे। बच्चों की मौत जैसी ह्रदय विदारक घटना का पहला सबक तो यह है कि अब आप किसी भी स्कूल में पढ़ाई, शिक्षक व अन्य सुविधाओं के साथ यह खात्री भी करें कि स्कूल की बिल्डिंग भी मजबूत है या नहीं। शिक्षा की रोशनी का नन्हा सा दीया कहीं उसके नीचे दबकर बुझ तो नहीं जाएगा? क्योंकि पता नहीं आपके नौनिहाल जिस छत के नीचे भविष्य के सपनों की मासूम रेखाएं खींच रहे हों, वही न जाने कब दगा दे जाए। प्राकृतिक या अन्य कारणों से इतर यह ऐसा हादसा है, जिसके लिए पूरी तरह सरकार, व्यवस्था और समाज जिम्मेदार है। जान बूझकर की गई लापरवाही और संवेदनहीनता जिम्मेदार है। पिपलोदी की इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है। क्योंकि इस देश में अभिभावक अभी तक अपने बच्चों को सुरक्षित स्कूल तक पहुंचाने, स्कूल के भीतर उनकी आबरू बचाने, पढ़ाई ठीक से होने और बच्चों का भविष्य संवरने की चिंता से ही जूझ रहे थे। अब इसमें स्कूल की वह इमारत भी शामिल हो गई है, जिसे सुरक्षित छत मानकर बच्चे तो क्या बड़े भी आंतरिक सुकून महसूस करते आ रहे हैं। दुर्योग से पिपलोदी की घटना के साल भर पहले अफ्रीकी देश नाइजीरिया के जोस शहर में भी ऐसा बड़ा हादसा हुआ था। जिसमें एक स्कूल बिल्डिंग अचानक ढहने से अंदर परीक्षा दे रहे 22 बच्चों को उत्तर पूरा लिखने के पहले ही असमय अपनी जान गंवानी पड़ी थी। उस हादसे में अपने किशोर बेटे और बेटी को गंवाने वाले पिता माइकल ओनोवो ने कहा था-‘ यह हादसा नहीं, हत्या है! बताया जाता है कि इस घटना में अपुष्ट जानकारी के अनुसार करीब 50 बच्चों की मौत की हुई थी, जो शायद किसी चलते स्कूल के बीच मासूम बच्चों के मरने सबसे बड़ा और डरावना आंकड़ा है। फर्क इतना है कि नाइजीरिया की वह बिल्डिंग एक निजी स्कूल की थी और मरने वाले बच्चे हादसे के वक्त परीक्षा दे रहे थे तो पिपलोदी के स्कूल की जर्जर इमारत सरकारी थी और वहां बच्चे रोजाना की तरह सबक याद कर रहे थे। दोनों में एक समानता है और वो है- स्कूल इमारत का घटिया निर्माण और रखरखाव में लापरवाही। नाइजीरिया के मामले में वहां के प्रशासन ने उसे ‘अपरिहार्य घटना’ बताया तो पिपलोदी मामले में स्कूल, जिला प्रशासन अपना पल्ला झाडऩे में लगा है। आशय यही कि जो हुआ, वह ‘ईश्वरेच्छा’ थी। इसमें कोई क्या कर सकता है। यह नकारात्मक सोच इस बात का सबूत है कि सरकार और प्रशासन किस असंवेदनहीन तरीके से काम करते हैं। उन्हें इससे शायद ही मतलब हो कि नाइजीरिया के माइकल ओनोवो की तरह पिपलोदी में भी छोटूलाल ने अपने दोनों बच्चों को गंवा दिया है। उन बच्चों की मां के सारे सपने स्कूल भवन के मलबे में राख हो गए हैं।
इस बीच इस घटना से चिंतित केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को अपने यहां सरकारी स्कूल भवनों का ऑडिट करने की सलाह दी है। राजस्थान सरकार ने भी जर्जर स्कूल भवनों में फिलहाल बच्चो को न पढ़ाने के निर्देश दिए हैं। राज्य के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने घटना की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए हैं। वहां के शिक्षा मंत्री ने मदन दिलावर ने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी ली है, लेकिन इस्तीफे से इंकार किया है। लेकिन असल सवाल तो यह है कि सरकारी स्कूल भवन इतनी जल्दी जर्जर कैसे हो जाते हैं, क्यों समय रहते उनकी मरम्मत नहीं होती, क्यों हर दो-तीन साल में स्कूल भवनों का ऑडिट नहीं होता? क्या इसलिए कि सरकारी स्कूलों में ज्यादातर गरीब घरों के बच्चे पढ़ते हैं? क्या इसलिए कि शिक्षा के सुदृढ़ मंदिर बनाने से ज्यादा हमारी रूचि उसकी निर्माण राशि हड़पने में है? और क्या शिक्षा हमारी आस्था का विषय नहीं है? अगर राम मंदिर का निर्माण हजार साल की आयु को ध्यान में रखकर हो सकता है तो शिक्षा मंदिर का निर्माण कम से कम सौ साल के लिए तो हो ही सकता है। पिपलोदी स्कूल के मामले में भी यही सामने आ रहा है कि गांव वालों और शिक्षको ने भी भवन के जीर्णशीर्ण होने की शिकायत प्रशासन से की थी, लेकिन किसी ने उसे गंभीरता लेना जरूरी नहीं समझा। शायद उन्हें सात मासूम बच्चों की लाशें उठने का इंतजार था।
यहां बात अकेले राजस्थान की नहीं हैं, जहां कुल 9 लाख 13 हजार 50 स्कूलों में से 2 हजार स्कूल के भवन जीर्णशीर्ण हालत में है, बल्कि मध्यप्रदेश सहित अधिकांश राज्यों की यही स्थिति है। मप्र में 211 स्कूलों के पास भवन ही नहीं है। 1275 स्कूलों में शिक्षक ही नहीं है तो 12 हजार से ज्यादा स्कूलों में सिर्फ एक शिक्षक है। राज्य सरकार ने एक अधिकृत जवाब में माना कि मप्र में 5600 स्कूल भवनों की हालत जर्जर है। कई स्कूलों में बारिश में छत से पानी टपक रहा है तो स्कूल के प्लास्टर उखडऩा और दीवारें गिरना असाधारण बात नहीं है। प्रदेश की राजधानी भोपाल में ही पिछले दिनों एक पीएमश्री स्कूल में छत का प्लास्टर गिरने से एक छात्रा घायल हो गई थी। 67 हजार में फर्नीचर और 15 हजार विद्यालयों में बिजली तक नहीं है। 2,787 स्कूलों में बालिका शौचालय ही नहीं हैं , हैं तो किसी काम के नहीं है। यहां तक कि बालकों के लिए भी 3116 स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस नेता कमलनाथ ने हाल में आरोप लगाया था कि मप्र शिक्षको के 70 हजार पद खाली हैं और 15 हजार शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में लगे हैं। हालांकि मप्र सरकार ने अब स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती का अभियान शुरू किया है, जिसके तहत 13 हजार स्कूली शिक्षकों की नियुक्ति की जानी है। लेकिन यह भी नाकाफी है। स्कूल भवनों के रखरखाव के लिए कितना बजट है, यह स्पष्ट नहीं है।
यह स्थिति तकरीबन देश के सभी राज्यों के सरकारी स्कूलों की है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार देश वर्तमान में कुल 10 लाख 22 हजार 386 सरकारी स्कूल हैं। यह भारत भर के कुल स्कूलों की संख्या का 68.7 फीसदी है। इसका अर्थ यही है कि देश में स्कूली शिक्षा में अभी भी सरकारी स्कूलों की अहम भूमिका है। इन स्कूलों में कुल स्कूली बच्चों के 54 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं और सरकारी स्कूल कुल शिक्षकों का 51.4 रोजगार देते हैं। देश में सबसे ज्यादा सरकारी स्कूल उत्तर प्रदेश में यानी 16 लाख से ज्यादा से हैं। उसके बाद राजस्थान और मध्यप्रदेश का नंबर है। हालांकि देश में सबसे अच्छा छात्र शिक्षक अनुपात यूपी में है।
ऐसा नहीं है कि सरकारें शिक्षा के लिए बजट नहीं दे रही हैं या फिर बढ़ा नहीं रही हैं। हालांकि यह बजट नीति आयोग दवारा प्रस्तावित कुल जीडीपी के 6 फीसदी से अभी भी कम है, जबकि होना चाहिए। वर्ष 2024- 25 के बजट में मोदी सरकार ने शिक्षा के लिए 1.20 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। न केवल केन्द्र बल्कि अधिकांश राज्यों में भी शिक्षा के लिए बजट बढ़ तो रहा है, लेकिन जा कहां रहा है, वह बड़ा सवाल है। स्वीकृत बजट में से भी ज्यादातर खर्च उन चुनिंदा स्कूलों पर ही हो रहा है, जिसे सरकार ‘वीआईपी’ मानती है। दूरदराज के सरकारी स्कूल राम भरोसे हैं। जबकि शिक्षा और उसका अधिकार सबके लिए बराबर है और होना चाहिए। इसमें गांव और शहर का भेदभाव भी अस्वीकार्य है। पिपलोदी हादसे में भी हमेशा की तरह राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप शुरू हो गए हैं। गिरी छत तुम्हारे शासन में बनी कि हमारे शासन में, यह मूर्खता पूर्ण बहस केवल जनता को धोखा देना है। जबकि शिक्षा और वो भी स्कूली शिक्षा राजीनीति का विषय होना ही नहीं चाहिए। क्योंकि शिक्षा देश की नई पीढ़ी को सुशिक्षित और उसे योग्य इंसान बनाने का उपक्रम है। दरअसल स्कूली शिक्षा को दोयम दर्जे का मानकर उसे हिकारत की नजर देखना भी अपने आप में बड़ा सामाजिक और मानव विकास की दृष्टि से महापाप है। पिपलोदी का हादसा भी इस मायने में ‘हत्या’ ही है। इसे सिर्फ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि स्कूल की छत ढह जाने से वहां पढ़ रहे जो फूल असमय कुम्हला गए, उनमें आपका बच्चा नहीं था। (-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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