
– अजय बोकिल
बॉलीवुड की ब्लॉक बस्टर और कल्ट क्लासिक कही जाने वाली फिल्म ‘शोले’ अपने रिलीज होने की स्वर्ण जयंती पर नए क्लायमेक्स वर्जन के साथ फिर से रि-रिलीज हुई है। बदले क्लायमेक्स में डाकू गब्बर को मार दिया गया है, जोकि इसके अनसेंसर्ड वर्जन में भी था। इसे दर्शक कितना पसंद करेंगे, यह कहना अभी मुश्किल है, क्योंकि बीते 50 सालों में काफी कुछ बदल गया है। दो पीढिय़ां बदल गई हैं। सामाजिक आचार, व्यवहार और आम आदमी की जिंदगी में फिल्मों की भूमिका भी बदल गई है। ‘शोले’ के जमाने में थियेटर में जाकर फिल्म देखना एक पारिवारिक अथवा फ्रेंड सर्कल का उत्सव भी होता था तो कुछ लोगों के लिए नई फिल्म का ‘पहला शो’ देखना जीवन-मरण का प्रश्न होता था। अब फिल्में ओटीटी पर कभी भी देखी जा सकती है। बहरहाल, निर्देशक रमेश सिप्पी की इस फ़िल्म के अनकट वर्जन का 27 जून को इटली के बोलोनी में इल सिनेमा रित्रोवातो फ़ेस्टिवल में अपना वल्र्ड प्रीमियर हुआ। अब इसे टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाया जाएगा, जो 4 सितंबर से शुरू हो रहा है। इस प्रीमियर में ‘शोले’ फिल्म के मूल अंत और हटाए गए दृश्य शामिल हैं, जो रिलीज़ के समय सेंसर की आपत्ति के कारण हटा दिए गए थे। 204 मिनट की यह फिल्म ‘अच्छाई बनाम बुराई’ की क्लासिक कहानी है। और एक काल्पनिक गांव रामगढ़ पर केंद्रित है। बावजूद तमाम आलोचनाओं के शोले का हर चरित्र अपने आप में एक मूल्य लिए हुए था, जिसका आज तेजी से क्षरण हो रहा है। फिल्म पहली बार जब रिलीज़ हुई थी तो मुंबई के मिनर्वा थिएटर में लगातार पाँच साल तक चली थी। बाद में इसे बीबीसी इंडिया के ऑनलाइन पोल में फिल्म ऑफ़ द मिलेनियम चुना गया और ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट के पोल में इसे ‘महानतम’ भारतीय फिल्म का दर्जा दिया गया। आरडी बर्मन के अमर संगीत और फि़ल्म के फ़ौरन पहचाने जाने वाले डायलॉग्स के पाँच लाख रिकॉर्ड्स और कैसेट बिके। बीबीसी हिंदी के अनुसार इस फिल्म को भारत की एक ‘सांस्कृतिक घटना’ माना जाता है, क्योंकि इसके चुटीले संवाद बरसों तक शादियों और राजनीतिक भाषणों में इस्तेमाल होते रहे हैं। कई विज्ञापनों में भी मज़ाकिया अंदाज़ में इनका उपयोग किया गया। इस फिल्म में अमिताभ के साथ एक छोटे से शहर के बदमाश और छोटे भाई की भूमिका निभाने वाले धर्मेंद्र ने हाल में कहा, शोले दुनिया का आठवां आश्चर्य है।
वैसे फिल्म शास्त्र में ‘कल्ट क्लासिक’ का अर्थ एक खास दर्शक वर्ग की सर्वकालिक लोकप्रिय फिल्म होता है। फिल्म इस मायने में भी अनूठी है कि इसका हर पात्र और चरित्र अब आइकॉनिक बन चुका है। फिर चाहे वह महज एक दो संवाद बोलने वाला सांभा हो, कालिया हो या फिर केवल एक डांस ‘महबूबा..महबूबा’ में झलकने वाले जलाल आगा हों। फिल्म के संवाद और पटकथा लेखक सलीम-जावेद ने हर पात्र इस तरह रचा और उसे कहानी में इस तरह से फिट किया कि जहां वह कहानी को आगे बढ़ाता है, वहीं अपने आप में संपूर्ण कैरेक्टर भी है। मूलत: बॉलीवुड फिल्म से प्रेरित इस फिल्म की कथा भारतीय परिवेश में इस तरह से सानी गई थी कि ये सारे पात्र नाटकीय होते हुए भी शुद्ध भारतीय ही लगते थे, आज भी लगते हैं बावजूद इसके कि बीते 50 सालों में काफी कुछ बदल गया है। अब सामाजिक रिश्ते बदल गए हैं। प्रौद्योगिकी का बहुत विकास हुआ है। डाकू समस्या देश के सीमित इलाके में रह गई है। संचार क्रांति हो चुकी है। भाप के इंजन और तांगे अब गुजरे जमाने की बातें हैं। क्रूरता और हिंसा, झूठ और मक्कारी में भी जमाना से ‘शोले’ से कहीं और ज्यादा भडक़ चुका है। कसे हुए डायलॉग, उनकी लाजवाब अदायगी और सटीक संपादन ने ‘शोले’ को ऑल टाइम हिट बना दिया। इस फिल्म की सफलता का बड़ा श्रेय इसके संपादक एम.एस. शिंदे को भी जाता है, जिन्होंने 3 लाख फीट के शूट किए फिल्म फुटेज को 18 हजार फीट में बदल दिया। इस चुस्त संपादन ने हर चरित्र को सटीक और अत्यंत प्रभावी बना दिया, जो छोटे से रोल में भी दर्शकों के दिलो दिमाग पर छाया रहता है। संपादक शिंदे इस दुनिया में नहीं है। ‘शोले’ का हर पात्र बाहर से कैसा भी हो, भीतर से कहीं ईमानदार है। जो भी करता है डंके की चोट पर करता है, दिल से करता है। यही बात दर्शक को गहरे तक प्रभावित करती है।
गौरतलब है कि 15 अगस्त 1975 को जब शोले रिलीज हुई थी, तब देश में आपातकाल लागू हुए 50 दिन ही हुए थे। चारों तरफ भय और आशंका का वातावरण था। सत्ता विरोधी लोग जेल में थे। मेरे जैसे कॉलेज के प्रथम वर्ष के विदयार्थी इस बात से चिंता में थे कि इमरजेंसी के कारण सागर विवि की परीक्षाएं दो माह टाल दी गईं थीं। दूसरी तरफ सरकारी तंत्र देश में जो हो रहा था, उसे ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दे रहा था। इसी अनिश्चितता और डर के माहौल में ‘शोले’ रिलीज हुई। शुरू में वो खास नहीं चली। लेकिन उस आपात काल में लोगों को शायद एक ऐसे मनोरंजन की दरकार थी, जो उन्हें जिंदगी और परिवेश के तनाव व भय से दूर ले जाए। और ऐसी फेंटेसी रचे जो उनके जीवन से बहुत अलग भी न हो। ‘शोले’ मानो इस पैमाने पर फिट बैठ गई। उसमें डाकू गब्बरसिंह का जो अमर कैरेक्टर अमजद खान ने निभाया, वह असल जिंदगी के डाकुओं से मेल भले न खाता हो, लेकिन सनकी काल्पनिक डाकुओं के हिसाब से एकदम सटीक था। इसी तरह जय और वीरू जैसे भागे हुए अपराधी भी थे तो पश्चिम की तर्ज पर, लेकिन सोचते- बोलते भारतीयों की तरह थे। अलबत्ता बसंती तांगे वाली का चरित्र अति नाटकीय होते हुए भी शुद्ध भारतीय था। इसी तरह ठाकुर बलदेवसिंह का पात्र अभिनेता सलमान खान के फौजी नानाजी से प्रेरित था। उन दिनों जो भी यह फिल्म देखकर लौटता था, अपने साथ फिल्म के कुछ डायलॉग भी बांध लाता था। फिर चाहे वह गब्बर सिंह हो, जय-वीरू या जेलर असरानी या फिर सूरमा भोपाली हो। जगदीप अभिनीत सूरमा भोपाली के अमर पात्र को देखकर भोपाल में रहने वाली असली भोपाली सूरमा यानी फारेस्ट ऑफिसर नाहर सिंह नाराज हो गए थे। असली सूरमा को लगा था कि उन्हें बदनाम किया गया है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। फिल्म के संवाद आपसी बातचीत और घर-परिवार में दोहराए जाते। इससे फिल्म की माउथ पब्लिसिटी तेजी से होने लगी। और कुछ लोग तो बार-बार इस फिल्म को देखने जाने लगे। फिर तो फिल्म ने ऐसा जोर पकडा कि करीब 3 करोड़ में बनी यह फिल्म 35 करोड़ कमा गई। ‘शोले’ की आंच से उस जमाने में केवल एक ही फिल्म अछूती रही और वह थी कम बजट में बनी ‘जय संतोषी मां।‘ लोग उसे श्रद्धा भाव से देखते थे। इस हिसाब से ‘शोले’ और ‘जय संतोषी मां’ बॉलीवुड और भारतीय समाज का एक ही समय में दिलचस्प कंट्रास्ट था।
लेकिन शोले की गर्मी कुछ अलग ही थी। पान की दुकानों, बस स्टैंडों, चौराहों पर शोले का साउंड ट्रैक और डॉयलाग सुनना और खूब मजे लेना लोगों का शगल बन गया। कई जगह पर ‘शोले’ के रिकॉर्ड बजते रहते थे और लोग उन्हें सुनने के लिए ठिठक जाते थे। दरसअल शोले के स्क्रीन पर आने के एक महीने बाद पॉलीडोर म्यूजिक कंपनी ने 48 मिनट का एक फिल्मी डायलॉग रिकॉर्ड रिलीज़ किया था। यही रिकॉर्ड जगह-जगह खूब बजता था। तकनीकी रूप से भी शोले’ स्टीरियोफोनिक साउंड और 70 एमएम वाली पहली फिल्म थी। जब थियेटर में इसके गाने बजते थे और तब अलग तरह की गूंज होती थी। तबके दर्शकों के लिए भी यह अलहदा और दिलचस्प अनुभव था। तब इस फिल्म के डॉयलॉग और साउंड ट्रैक गली, चौराहों और दुकानों पर बजता था, जिसे सुनने के लिए लोगो का हजूम उमड़ता था। ‘अरे, ओ सांभा, कितने आदमी थे’, ‘मियां पान खा लो, ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती?’, हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं, ‘आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ’, ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’ ‘तूने सरदार का नमक खाया है, अब गोली खा’, ‘ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर’, जैसे कई संवाद लोगों को आज तक जुबानी याद हैं। इस फिल्म के 70 एमएएम होने के कारण कुछ थियेटरो में नए पर्दे भी लगाए गए थे। यह भी भारतीय दर्शको के लिए नया अनुभव था। फिल्म में ‘द्वारका दिववेचा की सिनेमेटोग्राफी लाजवाब थी।
वो वक्त, वो माहौल कहां से लाओगे ?
बेशक, शोले बदले हुए एंड के साथ फिर रिलीज हुई है। डायलॉग, सीन, अभिनय, संगीत और निर्देशन के हिसाब से आज भी यह एक आइकॉनिक फिल्म है। लेकिन बदले हुए एंड के साथ यह कितनी चलेगी, यह देखने की बात है। इसका मुख्य कारण तो बीते पचास सालों में काफी कुछ बदलना है। संचार क्रांति ने बहुत कुछ बदल डाला है, जबकि ‘शोले’ में कोई पात्र फोन तक नहीं करता, क्योंकि तब फोन शहरों तक ही सीमित थे। आज हर व्यक्ति के हाथों में मोबाइल फोन है। शोले में बसंती तांगा चलाती है। क्योंकि तब रेलवे स्टेशन से रामगढ़ तक जाने के लिए सवारी के रूप में तांगा ही उपलब्ध था। नई पीढ़ी के लिए तांगा अब अजूबा है। इसी तरह बसंती का तांगेवाली बनना भी उस जमाने के हिसाब से भले महिला का स्वावलंबन और प्रगतिशीलता का प्रतीक रहा हो, लेकिन अब तो महिलाएं फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं।
शोले में दिखाई ट्रेन, जिस पर जय और वीरू चढ़ जाते हैं, वो भाप के इंजन वाली है, ऐसी ट्रेन अब भारत में कहीं नहीं चलती। भले ही शोले नए एंड के साथ रिलीज हो चुकी है, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भारत के थियेटरों में कब दिखाई जाएगी। दिखाई भी जाएगी तो अब यह कितनी चलेगी, कहना मुश्किल है। क्योंकि 70 एमएम तो क्या अब थ्री डी और एआई फिल्मों का जमाना आ चुका है। सिने संगीत का माधुर्य अब कर्कश और चीखते भावविहीन कसरती संगीत में तब्दील हो चुका है। जीवन में हिंसा कई गुना बढ़ चुकी है। सामाजिक मूल्यों का तेजी से क्षरण हुआ है। अलबत्ता मूल मानवीय चरित्र वैसे ही हैं। सामाजिक प्रवृत्तियां और आग्रह-दुराग्रह, राग- द्वेष वैसे ही हैं। इसीलिए ‘शोले’ कमाई की कसौटी पर खरी उतरे न उतरे, लेकिन कथानक और किरदारों के पैमाने पर वह ‘ऑल टाइम हिट’ ही रहेगी।
जिन कलाकारों ने शोले को अपनी कला से सुलगाया, उनमें से कई आज फिल्म की स्वर्ण जयंती के साक्षी बनने के लिए दुनिया में नहीं हैं। महान कलाकार और ठाकुर बलदेव सिंह की भूमिका निभाने वाले संजीव कुमार, जिन्होंने डाकू चरित्र की परिभाषा ही बदल दी, वो गब्बरसिंह यानी अमजद खान, सुरमा भोपाल की चरित्र को अमर करने वाले जगदीप, हरिराम यानी केश्टो मुखर्जी, विजू खोटे, मॅक मोहन आदि अब दुनिया के पर्दे के पीछे चले गए हैं। फिल्म पश्चिमी ढंग का गीत महबूबा महबूबा गाने पर अभिनय करने वाले जलाल आगा भी नहीं हैं। फिल्म के निर्माता जीपी सिप्पी भी अब नहीं हैं।
इस फिल्म का यादगार और स्टीरियोफोनिक संगीत देने वाली तो पूरी टीम ही अब स्वर्गवासी हो चुकी है। संगीतकार आर. डी. बर्मन, गीतकार आनंद बख्शी, गायक किशोर कुमार और मन्ना डे तथा लता मंगेशकर।
यूं भी किसी भी फिल्म के निर्माण की स्वर्ण जयंती मनना कोई साधारण बात नहीं हैं। कालजयी फिल्मों की किस्मत में ही यह लिखा होता है। ‘शोले’ की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसके संवाद और अभिनय पचास साल बाद भी उतने ही मारक, प्रेरक और दिलकश हैं। ऐसी फिल्में समय के फलक पर स्थायी हस्ताक्षर होती हैं। जिसे न तो कोई मिटा सकता है और न ही भुला सकता है। सौ साल बाद तो शोले को बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध के भारतीय समाज, चिंतन और चाल चलन के आईने के रूप में भी देखा जाएगा।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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