
योगसूत्र में कहा गया है कि चित्तवृतियों अथवा मन पर नियंत्रण ही योग है। योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। चिकित्सा-पद्धति के रूप में या फिर शरीर और मन के रूपांतरण के लिए योग के इन सभी आठों अंगों का अभ्यास करना अनिवार्य है। योग में शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के अभ्यास सम्मिलित होते हैं। सवाल है कि शारीरिक अभ्यास क्रम महत्वपूर्ण है या मानसिक अभ्यास क्रम?
हमारा शरीर और व्यक्तित्व वास्तव में हमारी भाव प्रक्रिया से ही बनता है। जैसा हम लगातार चिंतन करते हैं, जो कुछ भी हम सोचते रहते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। इसलिए हमारी विचार प्रक्रिया का सीधा असर हमारे स्वास्थ्य या फिर रोग पर भी पड़ता है। यही विचार प्रक्रिया रोग के उपचार में भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहां मन महत्वपूर्ण हो जाता है। जैसा या जो भी हम चाहते हैं वह मन-मस्तिष्क की एक खास अवस्था (अल्फा) में ही पूरा होता है। अब प्रश्न उठता है कि अगर सारा खेल मन का ही है तो फिर आसन और प्राणायाम की हमें जरूरत ही क्या है? वास्तव में भौतिक शरीर की जड़ता को खत्म करके उसे मन से जोडऩे और उसके बाद मन को अपेक्षित दशा अर्थात अल्फा अवस्था में ले जाने के लिए योगासन, प्राणायाम अनिवार्य है।
जब हम योग-साधना करते हैं तो कोई न कोई भाव तो हमारे मन में व्याप्त होता ही है। मन के कई स्तर हैं। चेतन या जाग्रत अवस्था में भी भाव तो होता है लेकिन वह वास्तविकता में नहीं बदलता, क्योंकि ध्यान के बिना यह असंभव है। ध्यान से हम अपेक्षित अल्फा लेवल में पहुंचता है या यूं कहें कि अल्फा लेवल में पहुंच कर ही हम ध्यान की अवस्था में पहुंच सकते है। अल्फा लेवल कहिए या ध्यान की अवस्था, इसी में मन हमारे भावों को वास्तविकता में बदलने में सक्षम होता है। अगर हमारा शरीर स्वस्थ है और मन अपेक्षाकृत कम चंचल है तो शरीर को सही आसन में रखकर दो-चार गहरी सांस लेने पर ही हम अल्फा अवस्था में पहुंच जाएंगे और फिर इस अवस्था में पहुंचकर हम जैसा भी विचार करेंगे, जो भी सोचना शुरू करेंगे, वही भौतिक जगत में वास्तविकता ग्रहण करने लगेगा।
लेकिन अगर हम यह सब ध्यानावस्था के बगैर दोहरा रहे हैं कि मैं स्वस्थ अथवा रोगमुक्त हूं तो उस अवस्था में हमारे विचार, संकल्प या फिर स्वीकारोक्ति के विरोधी विचार भी उठने लगते हैं। ध्यान की अवस्था में ही किसी मनचाहे विचार को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। द्वंद्व से भी यहीं आकर मुक्ति संभव है। द्वंद्वातीत अवस्था ही उपचार की आदर्श अवस्था है और द्वंद्वातीत अवस्था के लिए मन के पार अथवा अल्फा लेवल में पहुंचना अनिवार्य है। यही वह अवस्था है जहां हम रोग को निर्मूल कर सकते हैं या रोग पीड़ा से मुक्त हो सकते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, आय-व्यय, राग-द्वेष, मान-अपमान से ऊपर उठकर हम समता अवस्था में स्थित हों। यहीं ध्यान से समाधि की ओर अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसी में योग की पूर्णता है।
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